Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे Revision Notes Class 9 इतिहास History

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Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे Revision Notes Class 9 इतिहास History

Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे Notes Class 9 Itihas

Topics in the Chapter

  • घुमंतू चरवाहा
  • गुज्जर समुदाय
  • गुज्जर बकरवाल
  • गद्दी समुदाय
  • भारत तथा विश्व में पाए जाने वाले प्रमुख घुमंतु
  • घुमंतु चरवाहों के जीवन में आए परिवर्तन
  • पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में घुमंतू चरवाहे
  • औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन

घुमंतू

रेनके आयोग (2008) द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 1,500 घुमंतू जनजाति और अर्ध-घुमंतू जनजातियाँ और 198 विमुक्त जनजातियाँ हैं, जिनमें लगभग 15 करोड़ भारतीय शामिल हैं। इस लेख में हम घुमंतू किसे कहते हैं और विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति में अंतर क्या है जानेंगे।

घुमंतू एक जनजाति है, उनका कोई विशेष स्थान नहीं है और वे अपने जीवन यापन के लिए घूमते रहते हैं, इसलिए उन्हें घुमंतू कहा जाता है। यह एक सामाजिक रूप से पिछड़ी जनजाति है। ये जनजातियां अभी भी सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं और इनमें से कई जनजातियां अपने बुनियादी मानवाधिकारों से भी वंचित हैं। सबसे अहम मुद्दा उनकी पहचान को लेकर है।

इन समुदायों के सदस्यों को पीने का पानी, आश्रय और स्वच्छता आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। इसके अलावा, वे स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी सुविधाओं से वंचित हैं। विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों के बारे में प्रचलित गलत और आपराधिक धारणाओं के कारण उन्हें अभी भी स्थानीय प्रशासन और पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया जाता है।

चूंकि इन समुदायों के लोग अक्सर यात्रा पर होते हैं, इसलिए उनके पास कोई स्थायी निवास स्थान नहीं होता है। परिणामस्वरूप उनके पास सामाजिक सुरक्षा छत्र का अभाव है और उन्हें राशन कार्ड, आधार कार्ड आदि भी जारी नहीं किए जाते हैं।

इन समुदायों के बीच जाति वर्गीकरण बहुत स्पष्ट नहीं है, कुछ राज्यों में ये समुदाय अनुसूचित जाति में शामिल हैं, जबकि कुछ अन्य राज्यों में वे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अंतर्गत शामिल हैं। हालाँकि, इन समुदायों के अधिकांश लोगों के पास जाति प्रमाण पत्र नहीं है और इसलिए वे सरकारी कल्याण कार्यक्रमों का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।

वैसे लोग जो जीवन–यापन की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूमते रहते है, घुमंतू कहलाते हैं।


घुमंतू चरवाहा

घुमंतू चरवाहे ऐसे लोगों को कहा जाता है, जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते बल्कि अपनी जीविका के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते है| इन घुमंतू लोगों का जीवन इनके पशुओं पर निर्भर होता है| वह अपने पशुओं के साथ जगह-जगह घूमते है|

वर्ष भर किसी एक स्थान पर पशुओं के लिए पेयजल और चारे की व्यवस्था सुलभ नहीं हो पाती ऐसे में यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमणशील रहते है| जब तक एक स्थान पर चरागाह उपलब्ध रहता है, तब यह वहाँ रहते हैं, पर बाद में चरागाह समाप्त होने पर दूसरे स्थान की और चले जाते है|

वे लोग जो अपने मवेशियों के लिए चारे की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूमते रहते हैं उन्हें घुमंतू चरवाहा कहते हैं।

चरवाहे

ये लोग दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं। कुछ चरवाहे व्यापार और यातायात संबंधी काम भी करते हैं। कुछ लोग आमदनी बढ़ाने के लिए चरवाही के साथ-साथ खेती भी करते हैं। कुछ लोग चरवाही से होने वाली मामूली आय से गुजर नहीं हो पाने पर कोई भी धंधा कर लेते हैं। वैसे लोग जो मवेशियों को पालकर अपना जीवन यापन करते हैं चरवाहे कहलाते हैं।

भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले चरवाहा समुदाय

1. गुज्जर समुदाय

मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी गुज्जर लोग गाय और भैंस पालते हैं। ये हिमालय के गिरीपद क्षेत्रों (भाबर क्षेत्र) में रहते हैं। ये लोग जंगलों के किनारे झोंपड़ीनुमा आवास बना कर रहते हैं। पशुओं को चराने का कार्य पूरुष करते हैं। पहले दूध, मक्खन और घी इत्यादि को स्थानीय बाजार में बेचने का कार्य महिलाएँ करती थीं परंतु अब ये इन उत्पादों को परिवहन के साधनों (टैंपो, मोटरसाइकिल आदि) की सहायता से निकटवर्ती शहरों में बेचते हैं। इस समुदाय के लोगों ने इस क्षेत्र में स्थायी रूप से बसना आरंभ कर दिया है परंतु अभी भी अनेक परिवार गर्मियों में अपने पशुओं को लेकर ऊँचे पर्वतीय घास के मैदानों (बुग्याल) की ओर चले जाते हैं। इस समुदाय को स्थानीय नाम ‘वन गुज्जर’ के नाम से भी जाना जाता है। अब इस समुदाय ने पशुचारण के साथ-साथ स्थायी रूप से कृषि करना भी आरंभ कर दिया है। हिमाचल के अन्य प्रमुख चरवाहा समुदाय भोटिया, शेरपा तथा किन्नौरी हैं।


2. गुज्जर बकरवाल

इन लोगों ने 19वीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर में बसना आरंभ कर दिया। ये लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े झुण्ड पालते हैं जिन्हें रेवड़ कहा जाता है। बकरवाल लोग अपने पशुओं के साथ मौसमी स्थानान्तरण करते हैं। सर्दियों के मौसम में यह अपने पशुओं को लेकर शिवालिक पहाड़ियों में चले आते हैं क्योंकि ऊँचे पर्वतीय मैदान इस मौसम में बर्फ से ढक जाते हैं इसलिए उनके पशुओं के लिए चारे का अभाव होने लगता है जबकि हिमालय के दक्षिण में स्थित शिवालिक पहाड़ियों में बर्फ न होने के कारण उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध हो जाता है। सर्दियों के समाप्त होने के साथ ही अप्रैल माह में यह समुदाय अपने काफिले को लेकर उत्तर की ओर चलना शुरू कर देते हैं।

पंजाब के दरों को पार करके जब ये समुदाय कश्मीर की घाटी में पहुँचते हैं तब तक गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुकी होती है तथा चारों तरफ नई घास उगने लगती है। सितम्बर के महीने तक ये इस घाटी में ही डेरा डालते हैं और सितम्बर महीने के अंत में पुनः दक्षिण की ओर लौटने लगते हैं। इस प्रकार यह समुदाय प्रति वर्ष दो बार स्थानांतरण करता है। हिमालय पर्वत में ये ग्रीष्मकालीन चरागाहें, 2,700 मीटर से लेकर 4,120 मीटर तक स्थित हैं।


3. गद्दी समुदाय

हिमाचल प्रदेश के निवासी गद्दी समुदाय के लोग बकरवाल समुदाय की तरह अप्रैल और सितम्बर के महीने में ऋतु परिवर्तन के साथ अपना निवास स्थान परिवर्तित कर लेते हैं। सर्दियों में जब ऊँचे क्षेत्रों में बर्फ जम जाती है, तो ये अपने पशुओं के साथ शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आ जाते हैं। मार्ग में वे लाहौल और स्पीति में रुककर अपनी गर्मियों की फसल को काटते हैं तथा सर्दियों की फसल की बुवाई करते हैं। अप्रैल के अंत में वे पुनः लाहौल और स्पीति पहुँच जाते हैं और अपनी फसल काटते हैं। इसी बीच बर्फ पिघलने लगती है और दरें साफ हो जाते हैं इसलिए गर्मियों में अपने पशुओं के साथ ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पहुँच जाते हैं। गद्दी समुदाय में भी पशुओं के रूप में भेड़ तथा बकरियों को ही पाला जाता है।


भाबर: ‘भाबर’ वह तंग पट्टी है जिसका निर्माण कंकड़ों के जमा होने से होता है जो शिवालिक की ढलान के समानांतर सिंधु एवं तिस्ता नदियों के बीच पाई जाती हैं। इस पट्टी का निर्माण पहाड़ियों से नीचे उतरते समय विभिन्न नदियों द्वारा किया जाता है। सभी नदियाँ भाबर पट्टी में आकर विलुप्त हो जाती हैं।गढ़वाल और कुमाऊँ के इलाके में पहाड़ियों के निचले हिस्से के आस – पास पाया जाने वाला सूखे जंगल के इलाके को ‘ भाबर ‘ कहा जाता है।


बुग्याल: ऊँचे पहाड़ों पर स्थित घास के मैदानों 'को' बुग्याल कहा जाता है।

खरीफ फसल: वह फसल जो वर्षा ऋतु के आरंभ में बोया जाता है तथा शीत ऋतु के आरंभ में काट लिया जाता है 'खरीफ' फसल कहलाता है।
जैसे- चावल आदि।

रवी फसल: वह फसल जो शीत ऋतु के आरंभ में बोया जाता है तथा ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में काट लिया जाता है ‘ रवी ‘ फसल कहलाती है।
जैसे – गेहूँ, दलहल आदि।


भारत तथा विश्व में पाए जाने वाले प्रमुख घुमंतु

भारत

क्र.

घुमंडु चरवाहों के नाम

स्थान

1.

गुज्जर बकरवाल

जम्मू कश्मीर

2.

गद्दी

हिमाचल प्रदेश

3.

भोटिया

उत्तराखंड

4.

राइका

राजस्थान

5.

बंजारा

राजस्थान, मध्य प्रदेश

6.

मलधारी

गुजरात

7.

धंगर

महाराष्ट्र

8.

कुसमा, कुरूवा, गोल्ला

कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना

9.

मोनपा

अरूणाचल प्रदेश

विश्व

क्र.

घुमंडु चरवाहों के नाम

स्थान

1.

मसाई

केन्या, तंजानिया

2.

बेदुइस

उत्तरी अफ्रीका

3.

बरबेर्स

उत्तर पश्चिमी अफ्रीका

4.

तुर्काना

उगांडा

5.

बोरान

कीनिया

6.

मूर्स

मोरिटानिया

7.

सोमाली

सोमालिया

8.

नाम, जुलू

दक्षिण अफ्रीका

9.

बेजा

मिश्र, सूडान


घुमंतू चरवाहों के भ्रमण के कारण

  • सालों भर फसल उगाने वाले कृषि क्षेत्र की कमी।
  • मवेशियों के लिए चारे और पानी की खोज।
  • विषम मौसमी दशाओं से स्वयं एवं मवेशियों को बचाने के लिए।
  • अपने उत्पादों को बचेने के लिए।


औपनिवेशिक काल में घुमंतु चरवाहों के जीवन में आए परिवर्तन एवं उसके प्रभाव

परिवर्तन

  • भूमिकर बढ़ाने के लिए चारागाहों का कृषि भूमि में बदलना।
  • वन कानूनों के द्वारा वनों का वर्गीकरण।
  • 1871 में अपराधी जनजाति नियम लागू किया गया।
  • आमदनी बढ़ाने के लिए, भूमि, नहर, नमक, व्यापार यहाँ तक कि जानवरों पर भी टैक्स लगा दिया गया।

प्रभाव

  • मवेशियों की संख्या कम होती चली गई।
  • स्वतंत्र आवाजाही पर रोक तथा परमिट के बिना आने – जाने पर जुर्माने की व्यवस्था।
  • उन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया तथा एक क्षेत्र विशेष में ही उन्हें रहने का निर्देश दिया गया।
  • स्थानीय पुलिस के सतर्क निगरानी में परमिट के आधार पर ही किये जा सकते थे।
  • प्रत्येक समूह को मवेशियों की संख्या के आधार पर पास जारी किया गया जो उन्हें चारागाहों में घुसने से पहले दिखाना पड़ता था।
  • इस प्रकार इस टैक्स व्यवस्था ने उनका जीवन और दूभर कर दिया।

बदलावों का सामना

  • जानवरों की संख्या कम कर दी।
  • नए चरागाहों की खोज।
  • जमीन खरीद कर बसना एवं कृषि कार्य करना।
  • कुछ चरवाही छोड़ कर मजदूरी करने लगे।
  • कुछ व्यापारिक गतिविधियों में संलिप्त हो गए।
  • आवाजाही की दिशा में बदलाव।

पहाड़ों में घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही

  • जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोग अपने मवेशियों के लिए चरागाहों की तलाश में भटकते – भटकते 19 वीं सदी में यहां आए थे। समय बीतता गया और वह यहीं बस गए सर्दी गर्मी के हिसाब से अलग – अलग चरागाहों में जाने लगे।
  • ठंड के समय में ऊंची पहाड़ियां बर्फ से ढक जाती थी तो वह पहाड़ों के नीचे आकर डेरा डाल लेते थे ठंड के समय में निचले इलाकों में मिलने वाली झाड़ियां ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जाती थी।
  • जैसे ही गर्मियां शुरू होती जमी हुई बर्फ की मोटी चादर पिघलने लगती और चारों तरफ हरियाली छा जाती। यहां उगने वाली घास से मवेशियों का पेट भी भर जाता था और उन्हें सेहतमंद खुराक भी मिल जाती थी।

गद्दी चरवाहों की आवाजाही

  • पास के ही पहाड़ों में चरवाहों का एक और समुदाय रहता था हिमाचल प्रदेश के इस समुदाय को गद्दी कहते थे।
  • यह लोग भी मौसमी उतार चढ़ाव का सामना करने के लिए इसी तरह सर्दी- गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे। अप्रैल आते आते हुए उत्तर की तरफ चल पड़ते हैं और पूरी गर्मियां स्पीति में बिता देते थे। सितंबर तक वह दोबारा वापस चल पड़ते वापसी में वे स्पीति के गांव में एक बार फिर कुछ समय के लिए रुक जाते।


पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही

चरवाहे सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं रहते थे। वे पठारो, मैदानों और रेगिस्तान में भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे।

धंगर

  • धंगर महाराष्ट्र का एक जाना माना चरवाहा समुदाय है। बीसवीं सदी की शुरुआत में इस समुदाय की आबादी लगभग 4,67,000 थी।
  • उनमें से ज्यादातर चरवाहे थे हालांकि कुछ लोग कंबल और चादर भी बनाते थे और कुछ लोग भैंस पालते थे। ये बरसात के दिनों में महाराष्ट्र के मध्य पंडालों में रहते थे। यह एक ऐसा इलाका था जहां बारिश बहुत कम होती थी और मिट्टी भी कुछ खास उपजाऊ नहीं थी चारों तरफ सिर्फ कटीली झाड़ियां होती थी।
  • बाजरे जैसी सूखी फसलों के अलावा यहां और कुछ नहीं उगता था अक्टूबर के आसपास धंगर बाजरे की कटाई करते थे। महीने भर पैदल चलने बाद वे कोंकण के इलाके में जाकर डेरा डाल देते थे। अच्छी बारिश और उपजाऊ मिट्टी की बदौलत इस इलाके में खेती खूब होती थी किसान भी इन चरवाहों का दिल खोलकर स्वागत करते थे।
  • जिस समय वे कोकण पहुंचते थे उसी समय वहां के किसान खरीफ की फसल काटकर अपने खेतों को रबी की फसल के लिए दोबारा उपजाऊ बनाते थे बारिश शुरू होते ही धंगर तटीय इलाके छोड़कर सूखे पठारो की तरफ लौट जाते थे क्योंकि भेड़े गीले मानसूनी हालात को बर्दाश्त नहीं कर पाती।


बंजारा जनजाति

बनजारा का अर्थ घुमक्कड़ है। इनका इतिहास बहुत पुराना है। किसी समय में बनजारा शब्द किसी जाति या समुदाय विशेष का परिचायक था । इस शब्द की उत्पत्ति वनज शब्द से हुई है। चरवाहों में एक जाना पहचाना नाम बंजारों का भी है बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में रहते थे। यह लोग बहुत दूर – दूर तक चले जाते थे और रास्ते में अनाज और चारे के बदले गांव वालों को खेत जोतने वाले जानवर और दूसरी चीजें बेचते थे।

ये घुमक्कड़ लोग हैं और पूरे देश में घूमते रहते है| खुले आकाश के नीचे जहाँ जो जमीन इन्हें भा गई, डेरा डाल दिया जैसे- उस ज़मीं के वे ही मालिक हों, जैसे बादशाह हो । इनकी जनजातीय पहचान अब शेष नहीं रही है | जहाँ ठहर गए वहीं के हो गए। उसी स्थान की बीती, चाल -ढाल, रहन-सहन, रीती -रिवाज को अपनाने का भरपूर प्रयास करने के क्रम में इनकी जनजातीय विशेषता बहुत कम बच गयी है |

घुमक्कड़ होने के कारण बनजारे पूरे देश में पाये जाते है| झारखण्ड में बंजारा जाति संथाल परगना के राजमहल और दुमका अनुमंडल में संकेंद्रित है। 1941 की जनगणना में इस क्षेत्र में 46 परिवारों के बीच इनकी संख्या 252 थी | गोड्डा के आस -पास बसे चारण, भाट, दशीनी, राय, कबीश्वर आदि अपने को बनजारा ही बतलाते हैं। 1956 में ही इन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची में सम्मितित किया गया ।


औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन

औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में बहुत ज्यादा बदलाव आया उनको इधर उधर आने जाने के लिए बंदीशे लगा दी और उनसे लगान भी वसूल किया जाता था और उस लगान में भी वृद्धि की गई और उनके पैसे और हुनर पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।

पहली बात

  • अंग्रेज सरकार चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील कर देना चाहते थे जमीन से मिलने वाला लगान उसकी आमदनी का एक बड़ा स्रोत था। अगर खेती का क्षेत्रफल बढ़ता तो उनकी आय में भी बढोतरी होती इतना ही नहीं कपास, गेहं और अन्य चीजों के उत्पादन में भी इजाफा होता जिनकी इंग्लैंड में बहुत ज्यादा जरूरत थी।
  • अंग्रेज अफसरों को बिना खेती की जमीन का कोई मतलब समझ में नहीं आता था उन्हें लगता था कि इस जमीन से ना तो लगान मिल रहा है ना ही उपज हो रही है तो अंग्रेज ऐसी जमीनों को बेकार मानते थे और ऐसी जमीनों को खेती के लायक बनाना जरूरी समझते थे इसीलिए उन्होंने भूमि विकास के लिए नए नियम बनाए।

दूसरी बात

  • 19 वीं सदी के मध्य तक आते – आते देश के अलग – अलग प्रांतों में वन अधिनियम पारित किए गए। इन कानूनों की आड़ में सरकार ने ऐसे कई जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया। जहां पर देवदार या साल जैसी कीमती लकड़ियां पैदा होती थी जंगलों में चरवाहों के घुसने पर पाबंदी लगा दी गई।
  • जंगलों में चरवाहों को कुछ परंपरागत अधिकार तो दिए गए लेकिन उनका आना – जाना पर अभी भी बंदिशे लगा दी गई थी वन अधिनियमों ने चरवाहों की जिंदगी बदल डाली अब उन्हें उन जंगलों में जाने से रोक दिया गया जो पहले मवेशियों के लिए बहुमूल्य चारे का एक स्रोत थी। जिन क्षेत्रों में उन्हें प्रवेश की छूट दी गई वहां भी उन पर बहुत कड़ी नजर रखी जाती थी जंगलों में दाखिल होने के लिए उन्हें परमिट लेना पड़ता था।

तीसरी बात

  • अंग्रेज अफसर घुमंतू किस्म के लोगों को शक की नजर से देखते थे घुमंतूओ को अपराधी माना जाता था। 1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम (Criminal Tribes Act) पारित किया इस कानून के तहत व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदाय को अपराधी समुदाय की सूची में रख दिया गया।
  • उन्हें कुदरती और जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया इस कानून के लागू होते ही ऐसे सभी समुदाय को कुछ खास बस्तियों में बस जाने का हुक्म सुना दिया गया उसको बिना परमिट आना – जाना पर रोक लगा दिया गया।

चौथी बात

  • अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने लगान वसूलने का हर संभव रास्ता अपनाया। उन्होंने जमीन, नेहरो के पानी, नमक और यहां तक कि मवेशियों पर भी टैक्स वसूलने का ऐलान कर दिया। देश के ज्यादातर इलाकों में 19 वी सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था।
  • प्रति मवेशी टैक्स की दर तेजी से बढ़ती चली गई और टैक्स वसूली की व्यवस्था दिनोंदिन मजबूत होती गई। 1850 से 1880 के दशक के बीच टैक्स वसूली का काम बाकायदा बोली लगाकर ठेकेदारों को सौंपा जाता था। किसी भी चारागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पहले टैक्स अदा करना पड़ता था चरवाहे के साथ कितने जानवर है और उसने कितना टैक्स चुकाया है इन सभी बातों को दर्ज किया जाता था।

इन बदलावों ने चरवाहों कि जिंदगी को किस तरह प्रभावित किया

  • इन चीजों की वजह से चरवाहों की जिंदगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई क्योंकि इन चीजों की वजह से चरागाहों की कमी पैदा हो गई। चरागाह खेतों में बदलने लगे तो बचे – कुचे चरागाहों में चरने वाले जानवरों की तादाद बढ़ने लगी।
  • चरागाहों के बेहिसाब इस्तेमाल से चरागाहों का स्तर गिरने लगा जानवरों के लिए चारा कम पढ़ने लगा फलस्वरुप जानवरों की सेहत और तादाद भी गिरने लगी चारे की कमी और जब – तब पढ़ने वाले अकाल की वजह से कमजोर और भूखे जानवर बड़ी संख्या में मरने लगे।

चरवाहों ने इन बदलावों का सामना कैसे किया

  • कुछ चरवाहों ने तो अपने जानवरों की संख्या ही कम कर दी। बहुत सारे चरवाहे नई नई जगह ढूंढने लगे। अब उन्हें जानवरों को चराने के लिए नई जगह ढूंढनी थी अब वह हरियाणा के खेतों में जाने लगे जहां कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में वे अपने मवेशियों को चरा सकते थे।
  • समय गुजरने के साथ कुछ धनी चरवाहे जमीन खरीद कर एक जगह बस कर रहने लगे। उनमें से कुछ नियमित रूप से खेती करने लगे जबकि कुछ व्यापार करने लगे जिन चरवाहों के पास ज्यादा पैसे नहीं थे ब्याज पर पैसे लेकर दिन काटने लगे।
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