MCQ and Summary for परंपरा का मूल्यांकन (Parampara ka Mulyankan) Class 10 Hindi Godhuli Part 2 Bihar Board

परंपरा का मूल्यांकन - रामविलास शर्मा MCQ and सारांश

Multiple Choice Question Solutions (बहुविकल्पी प्रश्न)

1. रामविलास शर्मा निम्नांकित में क्या हैं ?
(A) आलोचक
(B) कवि
(C) नाटककार
(D) साहित्यकार
उत्तर
(A) आलोचक


2. 'परम्परा का मूल्यांकन' के लेखक कौन हैं ?
(A) नलिन विलोचन शर्मा
(B) अशोक वाजपेयी
(C) रामविलास शर्मा
(D) भीमराव अंबेडकर
उत्तर
(C) रामविलास शर्मा

3. 'परम्परा का मूल्यांकन' निबंध किस पुस्तक से संकलित हैं ?
(A) भाषा और समाज
(B) परम्परा का मूल्यांकन
(C) भारत की भाषा समस्या
(D) प्रेमचन्द और उनका युग
उत्तर
(B) परम्परा का मूल्यांकन

4. दूसरों की नकल कर लिखा गया साहित्य कैसा होता है ?
(A) उत्तम
(B) मध्यम
(C) अधम
(D) व्यंग्य
उत्तर
(C) अधम

5. रैफल, लियोनार्दो दि विंची और ऐंजलो किसकी देन हैं ?
(A) इंगलैण्ड की
(B) फ्रांस की
(C) इटली की
(D) यूनान की
उत्तर
(C) इटली की

6. शेक्सपीयर कौन थे ?
(A) नाटककार
(B) कहानीकार
(C) उपन्यासकार
(D) निबंधकार
उत्तर
(A) नाटककार

7. रामविलास शर्मा का जन्म कब हुआ था ?
(A) 10 अक्टूबर, 1912
(B) 10 मार्च, 1970
(C) 15 अगस्त, 1945
(D) 10 दिसम्बर, 2001
उत्तर
(A) 10 अक्टूबर, 1912

8. रामविलास शर्मा की रचनाओं के केन्द्र-बिन्दु हैं ___
(A) देशभक्ति
(B) मार्क्सवाद
(C) देशभक्ति एवं मार्क्सवाद
(D) सभी गलत है
उत्तर
(C) देशभक्ति एवं मार्क्सवाद

9. रामविलास जी के गाँव का नाम है
(A) ऊँच गाँव
(B) सानी
(C) ऊँच गाँव सानी
(D) सभी गलत है
उत्तर
(C) ऊँच गाँव सानी

10. साहित्य की परम्परा का पूर्ण ज्ञान किस व्यवस्था में सम्भव है ?
(A) सामन्तवादी व्यवस्था
(B) पूँजीवादी व्यवस्था
(C) समाजवादी व्यवस्था
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर
(C) समाजवादी व्यवस्था


परंपरा का मूल्यांकन- लेखक परिचय

हिन्दी आलोचना के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर डॉ० रामविलास शर्मा का जन्म उन्नाव (उ० प्र०) के एक छोटे-से गाँव ऊँचगाँव सानी में 10 अक्टूबर 1912 ई० में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से 1932 ई० में बी० ए० तथा 1934 ई० में अंग्रेजी साहित्य में एम० ए० किया। एम० ए० करने के बाद 1938 ई० तक शोधकार्य में व्यस्त रहे । 1938 से 1943 ई० तक उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापन कार्य किया । उसके बाद वे आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज चले आए और 1971 ई० तक यहाँ अध्यापन कार्य करते रहे । बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर वे के० एम० हिंदी संस्थान के निदेशक बने और यहीं से 1974 ई० में सेवानिवृत्त हुए । 1949 से 1953 ई० तक रामविलास जी भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री भी रहे । उनका निधन 30 मई 2000 ई० को दिल्ली में हुआ।

हिंदी गद्य को रामविलास शर्मा का योगदान ऐतिहासिक है । तर्क और तथ्यों से भरी हुई साफ पारदर्शी भाषा रामविलास जी के गद्य की विशेषता है। उन्हें भाषाविज्ञान विषयक परंपरागत दृष्टि को मार्क्सवाद की वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित करने तथा हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करने का श्रेय प्राप्त है, । देशभक्ति और मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी का केंद्र-बिंदु है। उनकी लेखनी से वाल्मीकि और कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ है । उन्हें न केवल प्रगति विरोधी हिंदी आलोचना की कला एवं साहित्य विषयक भ्रांतियों के निवारण का श्रेय है, बल्कि स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अंतर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

रामविलास जी ने हिंदी में जीवनी साहित्य को एक नया आयाम दिया । उन्हें ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’, ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’, ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘भाषा और समाज’, ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ ‘भारत की भाषा समस्या’, ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’, ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’, ‘विराम चिह्न’, ‘बड़े भाई’ आदि ।

पाठ के रूप में यहाँ रामविलास जी का निबंध प्रस्तुत है – ‘परंपरा का मूल्यांकन’ । यह निबंध इसी नाम की पुस्तक से किंचित संपादन के साथ संकलित है । यह निबंध समाज, साहित्य और परंपरा के पारस्परिक संबंधों की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक मीमांसा एकसाथ करते हुए रूपाकार ग्रहण करता है । परंपरा के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन का विवेक जगाता यह निबंध साहित्य की सामाजिक विकास में क्रांतिकारी भूमिका को भी स्पष्ट करता चलता है । नई पीढ़ी में यह निबंध परंपरा और आधुनिकता की युगानुकूल नई समझ विकसित करने में एक सार्थक हस्तक्षेप करता है।


परंपरा का मूल्यांकन- पाठ परिचय

प्रस्तुत पाठ ‘परम्परा का मूल्यांकन’ इसी नाम की पुस्तक से संकलित है। इसमें लेखक ने समाज, साहित्य तथा परंपरा से संबंधों की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक मीमांसा पर विचार किया है। यह निबंध परंपरा के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन का विवेक जगाता साहित्य की सामाजिक विकास में क्रांतिकारी भूमिका को भी स्पष्ट करता चलता है। अतः यह निबंध नई पीढ़ी में परंपरा और आधुनिकता को युग के अनुकूल नई समझ विकसित करने में सराहनीय सहयोग करता है।


परंपरा का मूल्यांकन का सारांश (Summary)

प्रस्तुत पाठ ‘परम्परा का मूल्यांकन’ ख्यातिप्राप्त आलोचक रामविलास शर्मा द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने प्रगतिशील रचनाकारों के विषय में अपना विचार प्रकट किया है।
लेखक का मानना है कि क्रांतिकारी साहित्य-रचना करनेवालों के लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि साहित्यिक-परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है और साहित्य की धारा बदली जा सकती है। तथा नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है।
मनुष्य आर्थिक जीवन के अलावा एक प्राणि के रूप में भी जीवन व्यतीत करता है। साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है।
साहित्य में विकास प्रक्रिया चलती रहती है। जैसे-जैसे समाज का विकास होता है वैसे-वैसे साहित्य का भी। व्यवहार में देखा जाता है कि 19 वीं तथा 20 वीं सदी के कवि क्या भारत के, क्या यूरोप के, ये तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, उनसे सिखते हैं और नई परम्पराओं को जन्म देते हैं।
दूसरों को नकल करके लिखा गया साहित्य अधम कोटि का होता है और सांस्कृतिक असमर्थता का सूचक होता है। लेकिन उतम कोटि का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद किए जाने पर अपना कलात्मक-सौन्दर्य खो देता है। तात्पर्य यह कि ऐसे साहित्य से कला की आवृति नहीं हो सकती। जैसे- अमेरिका अथवा रूस ने एटम बम बनाए, लेकिन शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज दुबारा लेखन इंगलैड में भी नहीं हुआ।
19वीं सदी में शेली तथा वायरन ने अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले यूनानीयों को एकात्मकता की पहचान करने में सहयोग किया था। भारतीयों ने भी अपनी स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस एकात्मकता को पहचाना।
मानव समाज बदलता है और अपनी अस्मिता कायम रखता है, क्योंकि जो तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करता है। साहित्य पंरपरा के ज्ञान के कारण ही पूर्वी एवं पश्चिमी बंगाल के लोग सांस्कृतिक रूप से एक हैं। कोई भी देश बहुजातिय तथा बहुभाषी होने के बावजूद जब उस देश पर कोई मुसीबत आती है तो उस समय वह राष्ट्रीय अस्मिता समर्थ प्रेरक बनकर लोगों को मुसीबत से लड़ने में सहयोग करती है।
जैसे- हिटलर के आक्रमण के समय रूसी जाति ने बार-बार अपने साहित्य परंपरा का स्मरण किया। टॉल्स्टाय सोवियत समाज में पढ़े जाने वाले साहित्य के महान साहित्यकार हैं तो रूसी जाति के अस्मिता को सुदृढ़ एवं पुष्ट करने वाले साहित्यकार भी हैं।
1917 ई0 के रूसी क्रांति के पहले वहाँ रूसी तथा गैर-रूसी थे, किन्तु इस क्रांति के बाद रूसी तथा गैर रूसी जातियों के संबंधों में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। सभी जातियाँ एक हो गई। फिर भी जातियों का मिला-जुला इतिहास जैसा भारत का है, वैसा सोवियत संघ का नहीं है।
यूरोप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात करते हैं, लेकिन यूरोप कभी राष्ट्र नहीं बना।
राष्ट्रीयता की दृष्टी से भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ राष्ट्रीय एक जाति द्वारा दूसरी जाति पर थोपी नहीं गई, बल्कि वह संस्कृति तथा इतिहास की देन है।
इस संस्कृति के निर्माण में देश के कवियों का महान योगदान है। रामायण एवं महाभारत इस देश की संस्कृति की एक कड़ी है। जिसके बिना भारतीय साहित्य की एकता भंग हो जाएगी।
लेखक का तर्क है कि यदि जारशाही रूस समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो सकता है तो भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीय अस्मिता पहले से कितना पुष्ट होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। अतः समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है।
पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का अपवाह होता है। देश के साधनों का समुचित उपयोग समाजवादी व्यवस्था में ही होता है।
देश की निरक्षर निर्धन जनता जब साक्षर होगी तो वह रामायण तथा महाभारत का ही अध्ययन नहीं करेगी, अपितु उत्तर भारत के लोग दक्षिण भारत की कविताएँ तथा दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारत की कविताएँ बड़े चाव से पढ़ेंगे। दोनों में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा। तब अंग्रेजी भाषा प्रभुत्व जमाने की भाषा न होकर ज्ञानार्जन की भाषा होगी।
हम अंग्रेजी ही नहीं, यूरोप की अनेक भाषाओं का अध्ययन करेंगे। एशिया के भाषाओं के साहित्य से हमारा गहरा परिचय होगा, तब मानव संस्कृति की विशाल धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा।

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