BSEB Solutions for श्रम विभाजन और जाति प्रथा (Shram Vibhajan Aur Jati Pratha) Class 10 Hindi Godhuli Part 2 Bihar Board

श्रम विभाजन और जाति प्रथा - भीमराव अम्बेदकर प्रश्नोत्तर 

Very Short Questions Answers (अतिलघु उत्तरीय प्रश्न)

प्रश्न 1. श्रम-विभाजन कैसे समाज की आवश्यकता है?
उत्तर

श्रम-विभाजन आज के सभ्य समाज की आवश्यकता है।


प्रश्न 2. जाति-प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है। क्यों?

उत्तर

रुचि पर आधारित नहीं होने के कारण जाति-प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है।


प्रश्न 3. बाबा साहब भीमराव अंबेदकर की दृष्टि में आदर्श समाज कैसा होगा? ..
उत्तर

बाबा साहब भीमराव अंबेदकर की दृष्टि में आदर्श समाज स्वतंत्रता समता और . बंधुत्व पर आधारित होगा।


प्रश्न 4. भीमराव अम्बेदकर का जन्म किस प्रकार के परिवार में हुआ था?
उत्तर

भीमराव अम्बेदकर का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था।

प्रश्न 5. “बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म” नामक पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर

“बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’ नामक पुस्तक भीमराव अम्बेदकर ने लिखी थी।


Short Question Answers (लघु उत्तरीय प्रश्न)

प्रश्न 1. लेखक किस विडंबना की बात करते हैं ? विडंबना का स्वरूप क्या है ?
उत्तर

लेखक बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर जी विडंबना की बात करते हुए कहते हैं कि इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जिसका स्वरूप है कि जातिप्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का रूप ले रखा है, जो अस्वाभाविक है।

प्रश्न 2. जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ?
उत्तर
जातिवाद के पोषकों का तर्क है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन आवश्यक मानता है और जाति प्रथा श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है, इसमें कोई बुराई नहीं।

प्रश्न 3. जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं ?
उत्तर 
जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की आपत्तियाँ इस प्रकार हैं कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप ले लिया है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता है।

प्रश्न 4. जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती?
उत्तर 
भारतीय समाज में जातिवाद के आधार पर श्रम विभाजन अस्वाभाविक है क्योंकि जातिगत श्रम विभाजन श्रमिकों की रुचि अथवा कार्य-कुशलता के आधार पर नहीं होता बल्कि माता के गर्भ में ही श्रम विभाजन कर दिया जाता है जो विवशता, अकुशलता और अरुचिपूर्ण होने के कारण गरीबी और अकर्मण्यता को बढ़ाने वाला है।

प्रश्न 5. लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मानते हैं और क्यों ?
उत्तर 
लेखक बाबा साहेब जी आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या यह मानते हैं कि बहुत से लोग निर्धारित कार्य को "अरुचि" के साथ केवल विवशतावश करते हैं। क्योंकि ऐसी स्थिति स्वभावत: मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालु काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लागता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 6. लेखक ने पाठ में किन प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है ?
उत्तर
लेखक ने विविध पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है जो निम्नलिखित हैं-
  • अस्वभाविक श्रम विभाजन
  • बढ़ती बेरोजगारी
  • अरुचि और विवशता में श्रम का चुनाव
  • गतिशील एवं आदर्श समाज का तथा वास्तविक लोकतंत्र का स्वरूप आदि।

प्रश्न 7. संविधान सभा के सदस्य कौन-कौन थे ? अपने शिक्षक से मालूम करें।
उत्तर
संविधान सभा के सदस्यों में बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर, जवाहरलाल, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, चक्रवर्ती राज', गोपालाचारी, श्यामा प्र मुखर्जी, सरोजनी नायडू, पडित विजयालक्ष्मी, हंस का आदि थे।

प्रश्न 8. जातिवाद और आज की राजनीति विषय पर अंवेटकार के अवसर पर छात्रों की एक विचार गोष्ठी आयोजित करें|
उत्तर
आज की राजनीति जातिवाद पर आधारित है। राजनीतिज्ञ लोग अब वोट बैंक बनाने के लिए जातिवाद का सहारा लेते हैं जो लोकतंत्र पर आघात है
अशोक कुमार के विचार- जातिवाद के आधार पर राजनीति करने वाले लोग लोकतंत्र के विरोधी हैं। सच्चा लोकदंत्र तभी सम्भव है जब समाज के हरेक व्यक्ति एक-दूसरे को भाईचारे की भावना से हरेक कार्य में सहभागी बनाता है और हरेक हित में समान रूप से सहभागी बनता है।

प्रश्न 9. बाबा साहब भीमराव अंबेदकर को आधुनिक मनुक्यों कहा जाता है ? विचार करें।
उत्तर 
बाबा साहब भीमराव अम्बंदकर मनु रूप में जाने जाते हैं। क्योंकि प्राचीन वैवस्त मनु ने मनुस्मृति के माध्यम से जातिवाद के सम्पर्क रूप में वर्ण-व्यवस्था को उचित बताकर सभी के लिए श्रम विभाजन आवश्यक बताया। लेकिन अम्बेदकर जी जातिवाद के आधार पर श्रम विभाजन अस्वाभाविक विभाजन कह जातिवाद की आलोचना की है। जातिवाद के माध्यम से श्रम विभाजन करना भारत की प्रगति । में बाधा डालना है। इस बात को बताने वाले बाबा साहब भीमराव अम्बेदकर हैं।

Long Question Answer (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)



प्रश्न 1. जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है ?
उत्तर
जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है क्योंकि भारतीय समाज में श्रम विभाजन का आधार जाति है। चाहे श्रमिक कार्य कुशल हो या नहीं हो, उस कार्य में रुचि हो या नहीं हो। जन्मजात श्रम विभाजन कर उसे श्रम विशेष के लिए चुनाव कर लिया जाता है। श्रमिक में कार्य के प्रति अरुचि हो अथवा वह श्रमिक कार्य कुशल नहीं हो तो वह अपने काम को दिल या दिमाग से नहीं कर सकता। ऐसी हालत में वह बेरोजगार हो जायेगा तथा समाज में दिन-प्रतिदिन वेरोजगारी को बढावा मिलेगा।

प्रश्न 2. सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है ?
उत्तर
सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने जिन विशेषताओं को आवश्यक माना है वे हैं-बहुविध हितों में सवका भाग समान होना चाहिए, सवको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलत: सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

प्रश्न 3. जाति प्रथा पर लेखक के विचारों की तुलना महात्मा गाँधी, ज्योतिबा फूले और डॉ राममनोहर लोहिया से करते हुए एक संक्षिप्त आलेख तैयार करें।
उत्तर
जाति प्रथा पर लेखक के विचार आलोचनात्मक है। लेखक के विचार से जाति प्रथा भारत की प्रगति में बाधक है। जाति प्रथा समाज में भाईचारे की भावना को समाप्त करता है। जाति प्रथा से समाज के लोग बँट जाते हैं। कोई ऊँच तो कोई नीच माना जाता है। भारतीय समाज में जाति प्रथा के आधार पर ही श्रम विभाजन होता है जो सभ्य या आदर्श समाज के लिए उचित नहीं। जातिवाद से लोकतंत्र समाप्त हो जाता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी भी जातिवाद को उचित नहीं मानते थे। गाँधीजी ने भी अछूतोद्धार पर जोर दिया। सबको एक ही ईश्वर का संतान बताया। उसी प्रकार ज्योतिबा फूले और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी जातिवाद से अलगाव एवं जातिवाद के आधार पर समाज बँटकर कमजोर होता है इत्यादि विचारों को रखकर समाज में उपेक्षित लोगों को आगे लाकर समाज को बदलना चाहते थे। तुलनात्मक दृष्टिकोण से सभी के विचार से जातिवाद अलगाव, अनेकता और भेद-भाव का कारक है। सबों के विचार से जातिवाद से दूर होकर ही सभ्य और आदर्श समाज का निर्माण हो सकता है। जिस समाज में हरेक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को भाईचारे की भावना से देखकर कार्य करेगा।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

1. यह विडंबना की ही बात है कि युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है, इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार वह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिये श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिये इसमें कोई बुराई नहीं है, इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिये हुये है, श्रम विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

प्रश्न.
(क) प्रस्तुत अवतरण किस पाठ से लिया गया है और इसके लेखक कौन हैं ?
(ख) इस युग में किसके पोषकों की कमी नहीं है और क्यों?
(ग) भारत की जाति प्रथा की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?
(घ) सभ्य समाज की क्या आवश्यकता है?
(ङ) श्रम-विभाजन में आपत्तिजनक कौन-सी बात है ?

उत्तर

(क) प्रस्तुत अवतरण श्रम विभाजन और जाति प्रथा शीर्षक लेख से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. भीमराव अम्बेदकर जी हैं।

(ख) इस युग में जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जातिवाद श्रम विभाजन का एक अभिन्न अंग है। श्रम विभाजन के आधार पर ही जातिवाद की आधारशिला रखी गयी है।

(ग) भारत की जाति प्रथा की सबसे प्रमुख विशेषता है कि वह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करा देती . है। ऐसी व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं है।

(घ) समर्थन के आधार पर सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिये श्रम विभाजन में आवश्यक अंग मानता है। जाति प्रथा श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है। यदि श्रम विभाजन न हो तो सभ्य समाज की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है।

(ङ) श्रम-विभाजन सभ्य समाज के लिये अत्यंत आवश्यक अंग है। जाति प्रथा श्रमिक विभाजन का ही रूप है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती है। सभ्य समाज की ऐसी व्यवस्था ही श्रम-विभाजन की आपत्तिजनक बातें हैं।


2. जाति प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति प्रथा
का दूषित सिद्धात यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण, जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही, अर्थात
गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

प्रश्न.
(क) गद्यांश के पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) लेखक के अनुसार जाति प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन क्यों नहीं माना जा सकता?
(ग) लेखक के अनुसार सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(घ) जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत क्या है ?
(ङ) किस प्रथा को श्रम विभाजन मान लेना स्वाभाविक विभाजन नहीं है।

उत्तर

(क) पाठ का नाम-श्रम विभाजन और जाति प्रथा
लेखक का नाम-डॉ. भीमराव अंबेदकर।

(ख) क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।

(ग) सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों की क्षमता का विकास इस सीमा तक किया जाए जिससे वे अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें।

(घ) सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर .देना जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत है।

(ङ) जाति प्रथा को श्रम विभाजन मान लेना स्वाभाविक विभाजन नहीं है।


3. श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है।
जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्व नहीं रहता। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत-से लोग निर्धारित कार्य को अरुचि के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकर प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्मशक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

प्रश्न.
(क) गद्यांश के पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) श्रम-विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त क्यों है ?
(ग) आज उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या क्या है ?
(घ) जाति प्रथा में कुशलता प्राप्त करना कठिन क्यों है ?
(ङ) जाति प्रथा आर्थिक पहलू से भी हानिकर है, क्यों?

उत्तर

(क) पाठ का नाम– श्रम विभाजन और जाति प्रथा
लेखक का नाम– डॉ. भीमराव अंबेदकर।

(ख) श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है, क्योंकि इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि का कोई स्थान नहीं रहता है। यह मानवीय स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता।

(ग) जातिगत निर्धारित कार्य को लोग अरुचि के साथ विवशतावश करते हैं। ऐसा करना … गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या है।

(घ) जाति प्रथा में परंपरागत कार्य से लोग आजीवन जुड़े रहते हैं। यह प्रथा दुर्भावना से ग्रस्त रहकर दिल-दिमाग का उपयोग किये बिना कार्य करने के लिए प्रेरित करती है जिसके चलते कुशलता प्राप्त करना कठिन है।

(ङ) जाति प्रथा आर्थिक पहलू से भी हानिकर है, क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि व आत्मशक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।


4. किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिये जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचरित हो सके। ऐसे समाज के बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिये तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिये। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिये। तात्पर्य यह है कि दूध पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है, इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

प्रश्न.
(क) लोकतंत्र कैसे समाज की परिकल्पना करना चाहता है ?
(ख) लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिये।
(ग) भाईचारे का संबंध दूध और पानी के मिश्रण-सा क्यों बताया गया है?
(घ) किनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिये।

उत्तर

(क) लेखक एक आदर्श समाज की स्थापना चाहता है, ऐसा समाज जो जाति प्रथा . से ऊपर उठकर स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व पर आधारित हो। आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिये जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके।

(ख) लोकतंत्र केवल शासन पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक दिनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव हो।

(ग) दूध और पानी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों में विच्छेदन नहीं किया जा सकता है। शुद्ध दूध में भी पानी का कुछ-न-कुछ अंश रहता ही है। सभ्य समाज ने जाति प्रथा के नाम पर श्रम का भी विभाजन कर दिया है। विविध जातियों का मिश्रण ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र की ऐसी व्यवस्था ही भाईचारा है। विविध धर्म, सम्प्रदाय के होकर भी हम भारतीय हैं। हमारा संबंध. अक्षुण्ण है। यही कारण है कि भारत में भाईचारे का संबंध दूध और पानी की तरह है।

(घ) सभ्य समाज ने जाति प्रथा के नाम पर समाज को विभक्त कर दिया है। ऐसे समाज में सबको भाग लेना चाहिये तथा एक-दूसरे की रक्षा के लिये सजग रहना चाहिये।

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