Notes for Chapter 4 औद्योगीकरण का युग (Audhogikaran ka Yug) Class 10 History Hindi Medium

Notes for Chapter 4 औद्योगीकरण का युग (Audhogikaran ka Yug) Class 10 History Hindi Medium

औद्योगीकरण का युग नोट्स Class 10 इतिहास

औद्योगीरण का मतलब सिर्फ फैक्ट्री उद्योग का विकास नहीं था । कपास तथा सूती वस्त्र उद्योग एवं लोहा व स्टील उद्योग में बदलाव काफी हुए और ब्रिटेन के सबसे फलते फूलते उद्योग थे । कपास 1840 के दशक में इंग्लैड में रेलवे के विस्तार से लोहा एवं इस्पात उद्योग का तेजी से विकास हुआ 1840 के दशक में इंग्लैंड में रेलवे के विस्तार से तथा 1860 के दशक में उपनिवेशों में रेलवे के विस्तार से | नए उद्योग परंपरागत उद्योग को आसानी से हाथियों पर ढकेल नहीं सकें। 19वीं सदी के आखिर में भी तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या 20 प्रतिशत से कम थी । परंपरागत उद्योग भाप से चलने वाले या लोहा एवं इस्पात उद्योग से प्रभावित नहीं थे परंतु ये पूरी तरह से ठहराव की अवस्था में भी नहीं थे। बहुत सारे साधारण और छोटे-छोटे अविस्कार इन गैर-मशीनी उद्योगों का आधार थी ।

औद्योगीक क्रांति से पहले का इतिहास

  • औद्योगीकरण को कारखानों के विकास से जोड़कर देखा जाता है।
  • औद्योगीकरण का इतिहास उद्योगों की स्थापना से शुरू होता है।
  • फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले भी अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए उत्पादन किया जाता था। इस व्यवस्था को प्रारंभिक औद्योगीकरण के नाम से जाना जाता है।
  • 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ बढ़ने लगे थे।
  • गाँवों में रहने वाले गरीब काश्तकार और दस्तकार बाहर से आए सौदागरों के लिए कार्य करने लगे थे।
  • इस समय गरीब किसान अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करने के लिए नए स्त्रोतों की तलाश कर रहे थे।
  • सौदागरों को पूरे ग्रामीण परिवार को श्रम संसाधनों के रूप में इस्तेमाल करने का अवसर मिल गया था।
  • व्यापार की इस व्यवस्था की वजह से शहरों और गाँवों के बीच घनिष्ट संबंध बनने लगा था।
  • लंदन को फिनिशिंग सेंटर कहा जाता था।
  • आरंभिक औद्योगिक व्यवस्था व्यवसायिक आयात-निर्यात के नेटवर्क का हिस्सा थी, जिसपर सौदागरों का नियंत्रण था।
  • उत्पादन के हर चरण में सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाते थे। इस आधार पर कपड़ों के एक सौदागर के पास सैंकड़ों मजदूर काम करते थे।
  • 1730 के दशक में इंग्लैंड में सबसे पहले कारखाने खुले थे।
  • 1840 के दशक में इंग्लैंड और 1860 के दशक में उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार हुआ था। इस समय लोहे और स्टील का उपयोग बड़ी मात्रा में किया गया।
  • नए उद्योगों के आने के बाद भी परंपरागत उद्योगों की अपनी विशेषता बनी रही।
  • परंपरागत उद्योग पूरी तरह से बंद नहीं किए गए थे।
  • प्रौद्योगिकी बदलावों में अधिक तेजी नहीं आई थी, जबकि आविष्कारकों एवं निर्माताओं ने बड़े-बड़े दावे किए थे।
  • 19वीं सदी के मध्य तक काम करने वाले मजदूर परंपरागत कारीगर होते थे।


मानव श्रम और मजदूरों की जिंदगी

  • सभी उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसम के अनुसार बढ़ती-घटती रहती थी।
  • ठंड के दिनों में कारखानों में अधिक मजदूरों की जरूरत होती थी।
  • जिन उद्योगों का उत्पादन मौसम पर निर्भर था, उन उद्योगों के मालिक मशीनों के स्थान पर मजदूरों को काम पर रखते थे।
  • 19वीं सदी में ब्रिटेन में 500 प्रकार के हथौड़े एवं 45 प्रकार की कुल्हाड़ियाँ बनाई गई थीं।
  • जिन देशों में मजदूरों की कमी थी वहाँ मशीनों का उपयोग उत्पादन के लिए किया जाता था।
  • बाजार में श्रम की अधिक माँग ने श्रमिकों के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया था।
  • उस समय कारखानों में जल्दी नौकरी प्राप्त करने के लिए जान पहचान की जरूरत सबसे अधिक होती थी।
  • बहुत बार मौसमी कार्यों के कारण मजदूरों को खाली बैठना पड़ता था।
  • 19वीं सदी की शुरुआत में मजदूरों के वेतन में थोड़ा सुधार तो आया लेकिन उनकी स्थिति में कोई बेहतर बदलाव नहीं आया।
  • नेपोलियनी युद्ध के समय किमतें बढ़ीं और मजदूरों की आय में भारी गिरावट आई।
  • 19वीं सदी में शहरों में लगभग 10% जनसंख्या गरीबी का शिकार थी।
  • 1830 के दशक में बेरोजगारों की संख्या 35% से बढ़कर 75% तक हो गई थी।
  • 1840 के दशक में रेलवे स्टेशन, रेलवे लाइनों, सुरंगों, सीवरों इत्यादि से जुड़े निर्माण कार्यों पर जोर दिया जाने लगा।


उपनिवेशों में कपड़े का युग और बुनकरों की स्थिति

  • मशीनों के आने से पहले अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजारों में भारत के रेशम तथा सूती कपड़े का महत्त्व सबसे अधिक था।
  • पहले भारत के महीन कपड़े ऊँटों के माध्यम से दूसरे देशों में ले जाए जाते थे।
  • गुजरात के सूरत बंदरगाह, मछलीपटनम और हुगली के माध्यम से व्यापार किया जाता था।
  • सौदागर बुनकरों से कपड़ा खरीदकर बंदरगाहों तक पहुँचाते थे और वहाँ व्यापारी मोल-भाव करके सौदागरों से उन कपड़ों को खरीद लेते थे।
  • 1970 के दशक में यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ने की वजह से भारतीय सौदागरों का व्यापारियों से संबंध टूटने लगा था।
  • पहले व्यापर का कुल मूल्य एक करोड़ रुपये से अधिक था लेकिन 1970 के दशक तक यह गिरकर 30 लाख रुपये हो गया।
  • व्यापार की दृष्टि से सूरत और हुगली बंदरगाह कमजोर हो रहे थे, वहीं दूसरी तरफ बंबई और कलकत्ता की स्थिति मजबूत हो रही थी।
  • नए बंदरगाहों को अधिक महत्व देने से औपनिवेशिक सत्ता की ताकतें बढ़ने लगी थीं।
  • 1970 के दशक के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से शुरुआत में भारतीय कपड़े के निर्यात में अधिक गिरावट नहीं आई।
  • यूरोप में अभी भी भारतीय कपड़े की माँग अधिक थी। इस वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी लाभ कमाने के लिए भारतीय कपड़े के निर्यात को बढ़ावा देना चाहती थी।
  • बुनकर और सौदागर अपनी वस्तुओं को सबसे ऊँची कीमतों पर खरीदने वाले व्यक्ति को बेचते थे।
  • उस समय कंपनी कभी भी व्यापार पर अपना संपूर्ण नियंत्रण स्थापित कर सकती थी।
  • कंपनी ने व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए निम्न दो बदलाव किए-
    1. कंपनी ने व्यापारियों और दलालों की सक्रियता समाप्त कर दी साथ ही बुनकरों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।
    2. बुनकरों को कंपनी के अलावा दूसरे खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई।
  • अब बुनकरों का पूरा परिवार बुनकरी के कार्यों को पूरा करने में लगा रहता था।
  • इस समय बुनकरों ने अपनी छोटी-छोटी जमीनों को भाड़े पर दे दिया था।
  • सौदागरों और बुनकरों के बीच लड़ाई-झगड़े होने लगे।
  • कंपनी बुनकरों को बहुत कम कीमत देती थी।
  • बुनकर अधिक कर्ज में डूबे होने के कारण कंपनी के साथ कम कीमत पर भी व्यापार करते थे।
  • कुछ बुनकर परेशान होकर गाँव छोड़कर चले गए और कुछ गाँव के व्यापारियों के साथ मिलकर कंपनी की व्यवस्था के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने लगे थे।
  • 19वीं सदी के दौरान बुनकरों के सामने अनेक कठिनाइयाँ आ चुकी थीं।


भारत में मैनचेस्टर का आना

  • वर्ष 1772 में हेनरी पतूलो ने भारतीय सूती वस्त्र को सबसे श्रेष्ठ बताया था।
  • फिर भी 19वीं सदी के शुरुआत में कई कारणों से भारतीय कपड़े के निर्यात में कमी आई थी।
  • सूती कपड़े का कुल निर्यात में 33% से घटकर 3% हो गया था।
  • भारतीय कपड़े के महत्त्व के घटने का कारण इंग्लैंड में कपास उद्योग का विकास होना था।
  • मैनचेस्टर में बने कपड़े बिना किसी प्रतिस्पर्धा के इंग्लैंड में आसानी से बिकने लगे।
  • ब्रिटिश कपड़ों के लिए भारत को बेहतर बाजार के रूप में स्वीकार किया गया।
  • ब्रिटेन के उत्पादन का आधा भाग भारत के बाजारों में महंगे दामों पर बेचने के लिए भेजा जाता था।
  • भारतीय बुनकरों के सामने दो समस्याएँ खड़ी हो गईं। एक तो निर्यात बाजार समाप्त हो रहा था और दूसरा स्थानीय बाजारों पर भी कंपनी का प्रभुत्व स्थापित होने लगा था।
  • स्थानीय बाजारों में सबसे अधिक मैनचेस्टर के वस्तु नजर आते थे।
  • 1860 के दशक में अच्छी कपास का न मिलना बुनकरों के लिए एक बड़ी समस्या बन गई।
  • भारत में स्थापित किए गए कारखानों में मशीनों के आने से बुनकरों का अपना उद्योग चौपट हो गया, जिससे उनकी स्थिति और भी खराब हो गई।


प्रारंभिक फैक्ट्रियाँ और मजदूरों की स्थिति

  • वर्ष 1854 में बंबई में पहली कपड़ा मिल बनी थी। इस मिल में दो साल बाद उत्पादन होने लगा था।
  • एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली थी।
  • पहली कताई-बुनाई मिल 1874 में मद्रास में खुली थी।
  • 18वीं सदी अंत में अंग्रेज भारतीय अफीम का निर्यात चीन को करने लगे थे।
  • पूँजी एकत्रित करने के लिए बाहरी व्यापारियों से संबंध जोड़ा गया था।
  • भारतीय व्यवसायियों को अंग्रेजों ने धीरे-धीरे जहाजरानी व्यवस्था से बाहर निकाल दिया।
  • यूरोपीय वाणिज्यिक परिसंघ में भारतीय व्यवसायियों को सम्मिलित नहीं किया जाता था।
  • जैसे-जैसे भारत में फैक्ट्रियों की संख्या बढ़ी, मजदूरों की माँग भी बढ़ने लगी थी।
  • उद्योगों में काम करने वाले अधिकतर मजदूर आस-पास के इलाकों से आते थे।
  • वर्ष 1911 में बंबई के सूती मिल में काम करने वाले लगभग आधे मजदूर पास के रत्नागिरी जिले से आए थे।
  • मजदूर फसलों की कटाई और तीज-त्यौहार के समय अपने-अपने गाँव चले जाते थे।
  • फैक्ट्रियों के मालिक मजदूरों की भर्ती के लिए ‘जॉबर’ रखते थे।
  • जॉबर गाँव के लोगों को नौकरी दिलाते थे और उन्हें शहर में रहने के लिए कभी-कभी पैसों से मदद भी करते थे।
  • बाद में जॉबर मजदूरों से मदद के बदले में कुछ धनराशि व उपहार की माँग करने लगे थे साथ ही मजदूरों की जिंदगी पर अपना अधिकार जमाने लगे थे।

भारत में औद्योगिक विकास का अनूठापन

  • यूरोपीय एजेंसियाँ भारत के कुछ खास उत्पादों को महत्त्व देती थीं।
  • यूरोपीय एजेंसियों ने भारत में सस्ते दामों पर जमीन खरीदकर चाय और कॉफी के बगान लगाए।
  • 19वीं सदी के अंत में भारतीय उद्योग मैनचेस्टर की बनी वस्तुओं से होड़ नहीं लगाते थे।
  • 20वीं सदी में औद्योगीकरण से जुड़े कई बदलाव आने शुरू हो चुके थे।
  • वर्ष 1906 के बाद चीन जाने वाले धागे में कमी हो गई। वहाँ के बाजारों में चीन और जापान के उत्पाद अधिक बिकने लगे थे।
  • 1900 से 1912 के बीच सूती कपड़े का उत्पादन दो गुना हुआ था।
  • प्रथम विश्व युद्ध की वजह से औद्योगिक विकास धीमा पड़ गया था।
  • युद्ध के उपरांत मैनचेस्टर को पहले वाली उपाधि कभी नहीं मिल पाई थी।
  • स्थानीय उद्योगपतियों ने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए धीरे-धीरे घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया था।


लघु उद्योगों की बढ़ती संख्या

  • अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों की भागीदारी बहुत कम थी।
  • अधिकतर मजदूर गली-मोहल्लों में लघु उद्योगों में कार्य करते थे।
  • 20वीं सदी के दौरान हस्तकला को बढ़ावा दिया जा रहा था। इस दौरान हाथ से बनी चीजों को महत्व दिया जा रहा था।
  • 20वीं सदी के दौरान हस्तकरघे पर बने कपड़े के उत्पादन में सुधार हुआ। यह उत्पादन 1900 से 1940 के बीच तीन गुना गो गया।
  • हाथ से काम करने वाले कारीगरों को नई तकनीक अपनाने में कोई परेशानी नहीं होती थी।
  • 20वीं सदी तक 35% से अधिक बुनकर फ्लाई शटल वाले करघों का इस्तेमाल करते थे।
  • कई ऐसे छोटे-छोटे सुधार किए गए जिससे बुनकरों को अपनी उत्पादकता को बढ़ाने तथा मिलों से मुकाबला करने में सहायता मिली।
  • 20वीं सदी में उत्पादन बढ़ाने से बुनकरों और दस्तकारों को सबसे अधिक फायदा हो रहा था।
  • बुनकरों और उनके परिवार का जीवन औद्योगीकरण की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग था।

वस्तुओं के लिए बाजार

  • ब्रिटिशों ने भारतीय बाजारों पर कब्जा जमाने के लिए अनेक प्रयास किए थे।
  • नए उपभोक्ता तैयार करने के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया गया।
  • वर्तमान में कोई भी चीज बेचने के लिए विज्ञापन तैयार करना सबसे जरूरी हो गया था।
  • आज भी अखबारों, पत्रिकाओं, दीवारों, टेलोवीजन इत्यादि के माध्यम से विज्ञापनों को दूर-दराज के इलाकों तक पहुँचाया जाता है।
  • मैनचेस्टर के उद्योगपति कपड़े के बंडलों को बेचने के लिए उसके ऊपर ‘मेड इन मैनचेस्टर’ का लेबल लगाते थे।
  • लेबलों को आकर्षित बनाने के लिए शब्दों के साथ-साथ कुछ चित्रों का भी निस्तेमाल किया जाता था।
  • लेबलों पर भारतीय भगवानों की तस्वीरें भी बनी होती थीं।
  • 19वीं सदी के अंत में उद्योगपति अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए कैलेंडर बनवाने लगे और उस पर देवी-देवताओं की तस्वीरें छपवाने लगे।
  • भगवान के अलावा विशेष व्यक्तियों, सम्राटों और नवाबों के चित्र भी विज्ञापन के लिए इस्तेमान किए जाते थे।
  • भारतीय निर्माताओं द्वारा राष्ट्रवादी संदेश के साथ विज्ञापन तैयार किए थे।


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