पाठ 8 - एक कुत्ता और एक मैना Extra Questions क्षितिज़ Class 9th हिंदी
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर -
1. आश्रम के अधिकांश लोग बाहर चले गए थे। एक दिन हमने सपरिवार उनके 'दर्शन' की ठानी। 'दर्शन' को मैं जो यहाँ विशेष रूप से दर्शनीय बनाकर लिख रहा हूँ, उसका कारण यह है कि गुरुदेव के पास जब कभी मैं जाता था तो प्रायः वे यह कहकर मुसकरा देते थे कि 'दर्शनार्थी हैं क्या?' शुरू-शुरू में मैं उनसे ऐसी बाँग्ला में बात करता था, जो वस्तुतः हिंदी-मुहावरों का अनुवाद हुआ करती थी। किसी बाहर के अतिथि को जब मैं उनके पास ले जाता था तो कहा करता था, ‘एक भद्र लोक आपनार दर्शनेर जन्य ऐसे छेन।' यह बात हिंदी में जितनी प्रचलित है, उतनी बाँग्ला में नहीं। इसलिए गुरुदेव ज़रा मुसकरा देते थे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि मेरी यह भाषा बहुत अधिक पुस्तकीय है और गुरुदेव ने उस 'दर्शन' शब्द को पकड़ लिया था। इसलिए जब कभी मैं असमय में पहुँच जाता था तो वे हँसकर पूछते थे दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या?' यहाँ यह दुख के साथ कह देना चाहता हूँ कि अपने देश के दर्शनार्थियों में कितने ही इतने प्रगल्भ होते थे कि समय-असमय, स्थान-अस्थान, अवस्था-अनवस्था की एकदम परवा नहीं करते थे और रोकते रहने पर भी आ ही जाते थे। ऐसे ‘दर्शनार्थियों से गुरुदेव कुछ भीत-भीत से रहते थे। अस्तु, मैं मय बाल-बच्चों के एक दिन श्रीनिकेतन जा पहुँचा। कई दिनों से उन्हें देखा नहीं था।
(क) गुरूदेव लेखक की किस बात पर मुस्कुरा देते थे?
(ख) गुरूदेव लेखक से क्यों पूछते थे- ‘दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या?’
(ग) किन दर्शनार्थियों से गुरूदेव डरे-डरे रहते थे?
उत्तर-
(क) लेखक गुरूदेव से बाँग्ला में बात करते थे| लेखक द्वारा किसी बाहर के अतिथि को दर्शनार्थी कहे जाने पर गुरूदेव मुस्कुरा देते थे|
(ख) लेखक असमय किसी दर्शनार्थी को लेकर गुरूदेव के पास पहुँच जाते थे, जिससे गुरूदेव को बहुत परेशानी होती थी| वह नहीं चाहते थे कि केवल उनका दर्शन पाने के लिए कोई असमय उन्हें परेशान करे| इसलिए वे लेखक से व्यंग्य भाव से पूछते थे- ‘दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या?
(ग) गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन दर्शनार्थियों से डरे-डरे रहते थे, जो प्रायः असमय आकर उन्हें परेशान किया करते थे| कुछ लोग ऐसे भी थे जो मना करने के बावजूद भी मिलने आ जाते थे, ऐसे लोगों से वे भयभीत रहा करते थे|
2. हम लोग उस कुत्ते के आनंद को देखने लगे। किसी ने उसे राह नहीं दिखाई थी, न उसे यह बताया था कि उसके स्नेह-दाता यहाँ से दो मील दूर हैं और फिर भी वह पहुँच गया। इसी कुत्ते को लक्ष्य करके उन्होंने 'आरोग्य' में इस भाव की एक कविता लिखी थी - ‘प्रतिदिन प्रात:काल यह भक्त कुत्ता स्तब्ध होकर आसन के पास तब तक बैठा रहता है, जब तक अपने हाथों के स्पर्श से मैं इसका संग नहीं स्वीकार करता। इतनी-सी स्वीकृति पाकर ही उसके अंग-अंग में आनंद का प्रवाह बह उठता है। इस वाक्यहीन प्राणिलोक में सिर्फ यही एक जीव अच्छा-बुरा सबको भेदकर संपूर्ण मनुष्य को देख सका है, उस आनंद को देख सका है, जिसे प्राण दिया जा सकता है, जिसमें अहैतुक प्रेम ढाल दिया जा सकता है, जिसकी चेतना असीम चैतन्य लोक में राह दिखा सकती है। जब मैं इस मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन देखता हूँ, जिसमें वह अपनी दीनता बताता रहता है, तब मैं यह सोच ही नहीं पाता कि उसने अपने सहज बोध से मानव स्वरूप में कौन सा मूल्य आविष्कार किया है, इसकी भाषाहीन दृष्टि की करुण व्याकुलता जो कुछ समझती है, उसे समझा नहीं पाती और मुझे इस सृष्टि में मनुष्य का सच्चा परिचय समझा देती है। इस प्रकार कवि की मर्मभेदी दृष्टि ने इस भाषाहीन प्राणी की करुण दृष्टि के भीतर उस विशाल मानव-सत्य को देखा है, जो मनुष्य, मनुष्य के अंदर भी नहीं देख पाता।
(क) कुत्ता किस कारण आनंदित था?
(ख) ‘मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन’ का क्या तात्पर्य है?
(ग) किसने मनुष्य का सच्चा स्वरूप समझाने में गुरूदेव की सहयता की?
उत्तर
(क) कुत्ता गुरूदेव के हाथों का स्पर्श पाकर स्नेह-रस का अनुभव करने लगा था| वह गुरूदेव के पास रहने की स्वीकृति पाकर ही आनंदित था|
(ख) ‘मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन’ का प्रयोग उस कुत्ते के लिए किया गया है, जो गुरूदेव का संग पाकर आनंदित हो उठता है| वह अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी स्वयं को समर्पित करने के लिए तैयार रहता है|
(ग) गुरूदेव के आश्रम के कुत्ते ने मनुष्य का सच्चा स्वरूप समझाने में उनकी सहायता की| कुत्ते ने अपने निस्वार्थ प्रेम से यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्यता की वास्तविक पहचान स्वयं को परमात्मा के लिए समर्पित कर देने से ही होती है|
महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर -
1. गुरूदेव शांतिनिकेतन को छोड़कर अन्यत्र क्यों जाना चाहते थे?
उत्तर
गुरूदेव का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था| वे भीड़-भाड़ से दूर एकांत में समय व्यतीत करना चाहते थे| वे उन लोगों से भी परेशान हो चुके थे जो आश्रम में बेवक्त उनसे मिलने आ जाया करते थे| इसलिए वे शांतिनिकेतन को छोड़कर अन्यत्र जाना चाहते थे|
2. ‘दर्शनार्थी’ शब्द सुनकर गुरूदेव क्यों मुस्कुरा देते थे?
उत्तर
लेखक द्वारा ‘दर्शनार्थी’ कहे जाने पर गुरूदेव मुस्कुरा देते थे क्योंकि हिंदी में तो इसका अर्थ मिलने के लिए आये हुए लोग हैं, लेकिन बांग्ला में यह कुछ अटपटा लगता था| यही सोचकर कि कोई उनके दर्शन करने आया है, ‘दर्शनार्थी’ शब्द सुनकर गुरूदेव मुस्कुरा देते थे|
3. रवींद्रनाथ टैगोर को किनसे डर लगता था?
उत्तर
रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने प्रतिदिन कई दर्शनार्थी आते रहते थे| उनमें से कई ऐसे थे जो बिना कारण और असमय ही आ पहुँचते थे| गुरूदेव उनके मन को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते थे लेकिन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण उन्हें बहुत परेशानी होती थी| ऐसे अतिथियों से गुरूदेव थोड़े डरे-से रहते थे|
4. किन-किन प्रसंगों से ज्ञात होता है कि गुरूदेव को पक्षियों और प्रकृति से प्रगाढ़ प्रेम था?
उत्तर
प्रतिदिन सुबह अपने बगीचे में टहलते हुए एक-एक फूल-पत्ती को ध्यान से देखना, कौए के न दिखाई देने पर बात करना, बगीचे में फुदकने वाली लंगड़ी मैना में करूण-भाव को समझना जैसे प्रसंगों से ज्ञात होता है कि गुरूदेव को पक्षियों और प्रकृति से प्रगाढ़ प्रेम था|